आपने कई घटनाएं पढ़ी सुनी होंगी.. उनमे से एक महत्वपूर्ण घटना का ही जिक्र कर रहा हूँ.. बकोरिया कांड’…नितिन सिन्हा
शायद आप मेरी पोस्ट से आप इत्तेफाक न रखें,..परन्तु एक बार सोंचिएगा जरूर…
क्योंकि मेरा यह मानना है,कि “कोई भी व्यक्ति नक्सली या आतंकी बनकर अपनी मां की पेट से पैदा नही होता,कहीं न कहीं हमारा सड़ा हुआ सिस्टम और उसे चलाने वाले ताकतवर लोग इनके जनक या जन्मदाता होते है”…नितिन सिन्हा
फिर भी आइये देखें देश में पुलिस बिना जवाब देही के कैसे काम करती है??..
ऐसा ही एक विषय है फेक एनकाउंटर का…
इसके विषय में तो आपने कई घटनाएं पढ़ी सुनी होंगी.. उनमे से एक महत्वपूर्ण घटना का ही जिक्र कर रहा हूँ.. बकोरिया कांड
जिसकी सीबीआई जांच रुकवाने के नाम पर पुलिस ने विभिन्न कारोबारियों और अधिकारियों से 19 करोड़ रु वसूले थे।।
यह फेक एनकाउंटर 8 जून 2015 को बकोरिया झारखण्ड में किया गया था।। जिसे न्यायालय ने संदेहास्पद माना है और cbi जांच का आदेश दिया है।। cbi जांच रोकने के लिए इस फेक एनकाउंटर में शामिल पुलिस अधिकारियों ने कारोबारियों और अन्य लोगो से पूरे 19 करोड़ रु वसूले थे।। जिनसे वसूली की गई थी उनमे कोयला व्यवसायी,ट्रांसपोर्टर,बिल्डर और एस पी रैंक के अफसर शामिल थे।।
पलामू के सतबरवा स्थित बकोरिया में 9 जून 2015 को कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे गए 12 लोगों के मामले की जांच करने के लिए जब सी बी आइ के बड़े अधिकारी पलामू पहुंच थे तब उनके साथ दिल्ली से केंद्रीय फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के विशेषज्ञ भी शामिल थे। अब अनसुलझा सा लगने वाला मामला केंद्रीय जांच टीम की पहली नजर पड़ते ही साफ हो चुका था(फेक एनकाउंटर)। इसके बाद प्लान बना है कि बकोरिया मुठभेड़ का नाट्य रूपांतरण होगा। इस चर्चित कथित मुठभेड़ पर दी गई झारखंड पुलिस की थ्योरी का जीवंत दृश्य प्रस्तुत कर पूरी घटना को समझने की कोशिश की जाएगी, ताकि यह सबको पता चल सके कि बकोरिया का मुठभेड़ असली था या पुलिस की गढ़ी हुई फर्जी कहानी थी।
बकोरिया कांड के समय पलामू के एस पी रहे हजारीबाग के एसपी कन्हैयालाल मयूर पटेल को भी टीम ने मौके पर बुलाया गया वो दो दिन बाद पहुंचे। तब तक सी बी आइ की टीम घटना से संबद्ध एक-एक व्यक्ति का बयान लेती रही। इसके बाद सतबरवा के तत्कालीन थानेदार मोहम्मद रुस्तम से भी लंबी पूछताछ की गई। घटनास्थल से जब्त हथियार व गाड़ी से केंद्रीय फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की टीम साक्ष्य जुटाने में लगी रही।
पुलिस थ्योरी के अनुसार नौ जून 2015 की इस मुठभेड़ की घटना में 12 लोग मारे गए थे,मारे गए सभी लोग नक्सली थे। जबकि मृतकों में से एक की पहचान अनुराग उर्फ डॉक्टर उर्फ आरके के रूप में हुई थी। अन्य मृतकों में चार नाबालिग थे, एक चालक, एक पारा स्कूली शिक्षक था। पुलिस के दावे अनुसार ये सभी नक्सली थे और स्कार्पियो से कहीं जा रहे थे। गुप्त सूचना पर जाल बिछा पुलिस ने कथित नक्सलियों की गाड़ी को रोकने की कोशिश की। परन्तु पुलिस को देखकर स्कार्पियों में बैठे नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी। मजबूरन पुलिस को भी जवाबी कारवाही करनी पड़ी जिसमें 12 नक्सली मारे गए थे।
“जबकि एफ एस एल विंग के सदस्याें ने प्रारंभिक जांच में स्पष्ट रूप से पाया कि स्कार्पिओ में ठँसा
-ठस 12 लोगाें के बैठने के बाद बंदूक से पुलिस पर अंधाधुंध फायरिंग करना कही से भी संभव नहीं था।’
क्योंकि 12 लोगों के बैठने के बाद स्कार्पिओ गाड़ी में हाथ-पैर हिलाने में भी तकलीफ होती है, ऐसे में अंधाधुंध फायरिंग की बात पूरी तरह से गलत प्रतीत हो रही थी। इस पर बकोरियां कांड में मारे गए सभी 12 निर्दोष लोगों को गोली कमर के ऊपर मारी गई थी।
पुलिस की झोलझाल थ्योरी के बाद कोबरा के अफसरों व जवानों से हुई थी पूछताछ
बकाेरिया कांड में सीबीआई अब 209 काेबरा बटालियन के उन अफसराें और जवानाें से पूछताछ की गई जाे मुठभेड़ में शामिल थे। सीआईडी ने हाईकाेर्ट में दिए शपथ पत्र में बताया था 209 काेबरा बटालियन काे नक्सली मूवमेंट की जानकारी पहले से जानकारी थी। जिसके बाद काेबरा बटालियन ने ही पूरा ऑपरेशन प्लान बनाया था। इसमें काेबरा के दाे एसाॅल्ट ग्रुप काे शामिल किया गया था, जिनमें 45 जवान थे। इसके अलावा राज्य पुलिस की स्पेशल एक्शन टीम के 16 लाेगाें काे भी मुठभेड़ में शामिल किया गया था। यह एक्शन प्लान आठ जून 2015 की शाम में ही जारी कर दिया गया था और घटना उसी रात को हुई थी। *यहां जांच टीम के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि कोबरा टीम को कथित नक्सली मूवमेंट की गलत सूचना किसने और क्यों दी थी??
इस कथित मुठभेड़ में मारे गए शिक्षक उदय यादव के परिजनों ने हाई कोर्ट में पुलिस के खिलाफ रीट फ़ाइल की थी। मृतक के परिजनों ने ही हाई कोर्ट से बकोरिया के मुठभेड़ को फर्जी मुठभेड़ बताते हुए सी बी आइ जांच की मांग की थी। हाई कोर्ट के आदेश पर ही सीबीआइ इस मुठभेड़ की जांच शुरू हुई। सी बी आइ की टीम ने जांच में पलामू के तत्कालीन डीआइजी हेमंत टोप्पो, तत्कालीन ए डी जी सी आइ डी रेजी डुंगडुंग,तत्कालीन पलामू के सदर थानेदार हरीश पाठक के बयान दर्ज किए थे।।
बताया जाता है कि पलामू में हुए बकोरिया कांड की सीबीआई जांच रुकवाने के लिए पुलिस अफसरों ने कारोबारियों से 19 करोड़ रुपए की उगाही की थी। इतनी बड़ी रकम से सुप्रीम काेर्ट के अधिवक्ताओं समेत केस से जुड़े वरिष्ठ अफसरों को मैनेज करना था। जांच एजेंसी के एक विंग ने इसका खुलासा किया है। इस विंग के बताए अनुसार, रकम की उगाही विभिन्न जिलों के कोयला व्यवसाइयों, ट्रांसपोर्टर्स, बिल्डर, होटल कारोबारी समेत एस पी रैंक के पुलिस अधिकारियों से की गई थी। इसके लिए संबंधित जिलों के पुलिस अफसरों को जिम्मेदारी सौंपी गई थी। जांच के दौरान उगाही और उसमें संलिप्त पुलिस अधिकारियों की सटीक और पुष्ट जानकारी विंग को कॉल सर्विलांस के जरिए मिली थी। जांच के दौरान यह भी खुलासा हुआ था कि उगाही की गई रकम दिल्ली भेजवाने में रांची रेंज में पदस्थापित एक वरीय पुलिस अफसर की सक्रिय भागीदारी रही है। झारखंड हाईकोर्ट में एक अधिवक्ता के भाई सुप्रीम कोर्ट में बड़े अधिवक्ता थे, जिन्होंने पूरे मामले को मैनेज करने के लिए जिम्मेवारी अपने ऊपर ली थी। इस चौंकाने वाले खुलासे के बाद सीबीआई जांच को एक और मुख्य कड़ी मिल गई थी । उगाही और केस मैनेज करने की कॉल रिकॉर्डिंग मिलने के कारण जांच और तेज कर दी गई। यह साक्ष्य मिलने से कई आईपीएस अधिकारियों पर गाज गिरना भी लगभग तय हो गया था।
राजधानी ट्रेन से तीन बैग में दिल्ली भेजे गए थे 10 करोड़ रुपए
जांच एजेंसी ने यह भी खुलासा किया कि डीएसपी स्तर के पुलिस अफसरों द्वारा उगाही की कॉल रिकॉर्डिंग मिलने के बाद इसकी अंदरुनी जांच शुरू की गई। इसमें यह पता चला कि उगाहे गए 19 करोड़ रुपए को दिल्ली भेजा जाना था,ताकि सीबीआई जांच पर रोक लगाई जा सके। इसमें रांची रेंज के वरिष्ठ पुलिस अफसर ने मुख्य भागीदारी निभाई थी। उन्होंने अपने आदमियों से 10 करोड़ रुपए दिल्ली भेजवाए थे। यह रकम तीन बैग में भरकर राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन से दिल्ली भेजे गए थे। उगाही के सबूत मिलने के बाद इसमें संलिप्त चार कोयला व्यवसायियों और ट्रांसपोर्टर से पूछताछ हो चुकी थी।
सरकार को भरोसा में लेकर पुलिस अफसरों ने कराई थी एस एल पी
सीबीआई जांच रोकने के लिए पुलिस अधिकारियों ने रघुवर सरकार को विश्वास में लिया था। भरोसा दिलाया था कि एसएलपी के तहत सीबीआई जांच रुकवाई जा सकती है। इसके बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की थी। कहा था- मुठभेड़ के बाद पुलिस को सताने की कोशिश की जा रही है। लेकिन कोर्ट ने सीबीआई जांच को सही करार देते हुए सरकार की इस बात को खारिज कर दिया था।
सीआईडी जांच पर संदेह के बाद हाईकोर्ट ने दिया था सीबीआई जांच का आदेश
बकोरिया गांव में 8 जून 2015 को तथाकथित मुठभेड़ हुई थी। 22 अक्तूबर 2019 को हाईकोर्ट ने बकोरिया मुठभेड़ कांड की सीबीआई जांच का आदेश दिया था।
हाईकोर्ट ने सी आई डी अनुसंधान के कई बिंदुओं पर संदेह जताया था। इसके बाद 19 नवंबर को सीबीआई दिल्ली की स्पेशल सेल ने इस मामले में केस दर्ज किया था। हालांकि इससे बड़े दुख की बात क्या होगी कि वर्ष 2018 से इस मामले की जांच सीबीआई कर रही है.सीबीआई की ओर से करीबन 500 लोगों से पूछताछ की गयी है.जिनमे तत्कालीन डी जी झारखंड, पलामी रेंज के डीआईजी, एसपी, एसपी अभियान, सीआरपीएफ और कोबरा कमांडेट से दुबारा पूछताछ की जा चुकी है. इस बीच बकोरिया मुठभेड़ में एफआईआर दर्ज करवाने वाले दरोगा मोहम्मद रुस्तम ने सीबीआई के सामने अपना बयान बदल लिया है.मगर वर्ष 2015 से दर्जन भर पीड़ित परिवार वालों को हमारा सिस्टम न्याय नही दिला पाया है।।
वैसे बकोरिया हत्याकांड बिना जवाब देही की पुलिस व्यवस्था का यह एक मात्र नमूना है,जबकि देश मे लगभग हर सात या आठ दिन में एक फेक एनकाउंटर(फ़र्ज़ी मुठभेड़)होती है।। जिसमें किसी न किसी एक निर्दोष नागरिक की जान भी जाती है।। जबकि सम्बंधित पुलिस अधिकारियों को बदले में ईनाम और प्रमोशन मिल जाता है।। पीड़ित परिवार की सिसकियां समय के साँथ भी दब जाती है।। परिवार के जो सदस्य ऐसी घटनाओं को भूल नही पाते है,वे सिस्टम के खिलाफ खड़े हो जाते हैं।। जिन्हें आप और हम नक्सली या आतंकी कहने लगते है।।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक 01 जनवरी 2015 से 20 मार्च 2019 के बीच उसे देशभर में फेक एनकाउंटर से जुड़ी 215 शिकायतें मिली हैं.आज यह आंकड़ा 300 के पार पहुंच चुका है।।
इनमें से सबसे ज़्यादा फ़ेक एनकाउंटर की शिकायतें राम राज यानी के उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई हैं..
6 जनवरी 2019 को गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने राज्यसभा में बताया कि 2018 में भारत में 22 फेक एनकाउंटर हुए। इनमें 17 यानी 77% से भी ज्यादा उत्तरप्रदेश में हुए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि भारत में 2000 से 2018 के बीच 18 साल में 1804 फेक एनकाउंटर हुए। इनमें 811 फेक एनकाउंटर यानी 45% अकेले उत्तरप्रदेश में हुए।
फेक एनकाउंटर के कारण सरकारों को पांच साल में 28 करोड़ 77 लाख रुपए मुआवजा देना पड़ा
पुलिस एनकाउंटर के फेक साबित होने पर सरकार को विक्टिम के परिवार को मुआवजा देना पड़ता है। मानवाधिकार आयोग ही मुआवजे की रकम तय करता है। 2012 से लेकर 2017 के बीच, उत्तर प्रदेश सरकार को सबसे ज्यादा 13 करोड़ 23 लाख रुपए मुआवजा देना पड़ा।
बात यही खत्म नही होती पुलिस की तानाशाह और अलोकतांत्रिक कार्यशैली का एक नमूना,हिरासत में मौत का भी अवलोकनीय है...
जबकि पिछले पांच साल में पुलिस हिरासत में हुई सदेहास्पद मौत के मामले में हमारे राज्य के साथ अन्य राज्यों में एक भी पुलिसवाले को सजा नहीं हुई है
पिछले पांच साल में पुलिस हिरासत में मौत होने पर पुलिसवालों पर कुल 192 केस दर्ज हुए। जिंसमे 2017 में सबसे ज्यादा 62 केस हुए। विडम्बना देखिये केस तो दर्ज होते हैं,लेकिन चार्जशीट केवल 61% मामलों में बन पाती है। इनमें से एक भी मामले में किसी पुलिसवाले को सजा नहीं हुई है। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ पांच साल के दौरान का ट्रेंड है। 2000 से 2018 तक की बात करें तो इन 18 सालों में 810 पुलिसवालों पर केस हुआ। 334 चार्जशीट हुई,जिनमे सिर्फ 26 पुलिस वालों को ही सजा मिली। इन मामालों में 2019 पंकज बेक की पुलिस हिरासत में मौत का मामला भी प्रासंगिक है। हिरासत में मौत के मामलों में भी छ ग पुलिस का वरीयता में स्थान रहा है।
हालांकि हमारा छत्तीसगगढ़ राज्य भी फेक एनकाउंटर मामलों से भी अछूता नही रहा है।। एक मानवाधिकार संगठन ने अपनी तत्कालीन रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा था कि राज्य की रमन सरकार के शासन काल में जितने पुलिस कर्मियों का *आउट ऑफ टर्न* प्रमोशन हुआ है,उसकी अगर निष्पक्ष जांच करा दी जाए तो 90 प्रतिशत से अधिक प्रमोशन आर्डर में बेगुनाह आदिवासियों/ग्रामीणों का खून का रंग लगा मिलेगा।।
क्रमशः- अगले क्रम में बिना जवाबदेही के न्यायापालिका और कार्यपालिका पर एक सारगर्भित लेख..
नितिन सिन्हा की🖋️ से…