30 बरस का राजनैतिक जीवन.. मंत्री..विधानसभा उपाध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री रहे शख़्स को एक मूर्ति तक नही है नसीब.. लूट गई विरासत!

कोरबा लल्नगुरू विशेष नितेश शर्मा,25 जून 2020। सियासत निर्मम होती है, बेहद निर्मम, बिलकुल क्षण क्षण परिवर्तित होते समय के साथ जुगलबंदी करते हुए। कभी अर्श पर तो कभी फ़र्श भी नसीब नहीं। एकीकृत मध्यप्रदेश के समय छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के पास एक क़द्दावर चेहरा था। एम ए एलएलबी की डिग्री के साथ राजनीति में आने वाला शख़्स जो तीस बरस से उपर की सक्रिय राजनीतिक पारी सफलता से खेल गया, जिसके पॉलिटिकल प्रोफ़ाईल में मंत्री, विधानसभा उपाध्यक्ष से लेकर डिप्टी चीफ मिनिस्टर दर्ज हुआ, ऐसे शख़्स की याद में आज एक मूर्ति तक मौजुद नही है,जबकि दुनिया को अलविदा कहे इस शख़्स को नौ बरस हो चुके हैं। यह प्यारेलाल कँवर की ही बात है।

प्यारेलाल कँवर तीस साल विधायक रहे, उन्होने सबसे पहला चुनाव 1962 में जीता। वे उस दौर में कांग्रेस के भीतर बेहद पढ़े लिखे आदिवासी चेहरा थे जिसका संदर्भ एकीकृत मध्यप्रदेश के उस हिस्से से था, जिसे आज छत्तीसगढ कहते हैं। श्यामाचरण शुक्ल के पसंदीदा रहे प्यारेलाल कँवर उनके मंत्रीमंडल में आदिम जाति कल्याण विभाग के राज्यमंत्री रहे थे। कांग्रेस के भीतर प्यारेलाल कँवर की मौजुदगी के बहुत सारे सियासी मायने थे।

जिस दौर में प्यारेलाल कँवर को शुक्ल बंधुओं विशेषकर श्यामाचरण शुक्ल का साथ मिला, यह वो वक़्त था जबकि एकीकृत मध्यप्रदेश के इसी इलाक़े से शुक्ल बंधुओं को चुनौती देता एक नाम सामने आ गया था, यह नाम था बिसाहू दास महंत। यह सियासती तानाबाना था, जिसे बेहद तेज श्यामाचरण ने भाँपा और बिसाहू दास महंत समेत इन दिगर उभरते नेताओं को रोकने आदिवासी कार्ड की इजाद हुई और प्यारेलाल कँवर इस कार्ड का प्रमुख चेहरा बनाए गए।

यह चेहरा सियासत में ख़ूब फला फूला.. सियासत में बेहद सधे हुए माहिर पंडित श्यामाचरण शुक्ल का यह आदिवासी कार्ड ही दिग्विजय शासनकाल में उप मुख्यमंत्री बना, जिसके पीछे वजह गुटीय संतुलन को साधना ही वजह थी।

बेहद पढे़ हुए प्यारेलाल कँवर ने अपने क्षेत्र में शिक्षा स्वास्थ्य और पेयजल को लेकर ख़ूब काम किया। उन्होने अपने क्षेत्र में स्कूलों,अस्पतालों की क़तार खड़ी कर दी।कई सिंचाई परियोजना, नहरें उन्होने अपने क्षेत्र में रुचि लेकर स्थापित कराई। शिक्षा को लेकर उनका योगदान और उनकी लगन चकित करती है।

प्यारेलाल कँवर को लेकर क़िस्सा है कि वे कभी हवाई जहाज़ या हैलिकॉप्टर पर सवार नही हुए, उन्हे कितना आपात काम पड़ जाए या तो वे कार से आते थे या फिर ट्रेन से। यह कौन सी बात थी जो उन्हे हवाई सफ़र से रोकती थी इसे कोई नही बता पाता है।
19 मार्च 1933 को जन्मे इस क़द्दावर आदिवासी नेता की विरासत फ़िलहाल बिखर गई है। जिस अजीत जोगी के नाम को लेकर प्यारेलाल कँवर सदैव विरोध की मुखमुद्रा में रहे, हालिया बीते विधानसभा चुनाव में उन्ही जोगी की पार्टी छजका दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस का चेहरा तीसरे पायदान पर जा पहुँचा।

उनके पुत्रों में एक हरीश कँवर खुद रामपुर इलाक़े में छजका के प्रमुख कर्ता धर्ता रहे हैं।हालाँकि हरीश अब कांग्रेस में वापस आ चुके हैं। प्यारेलाल कँवर की सियासती विरासत को लेकर हरीश में उसे हासिल करने की उत्कंठा दिखती है, और छजका को लेकर हरीश कहते हैं –
“बहुत सारी चीज़ें हुई, मैं कांग्रेस में ही था, टिकट का दावेदार था, जीत तय थी, लेकिन जानबूझकर टिकट नही दी गई, हमें घेरा गया,किस लिए उपेक्षा की गई, इसका जवाब नही मिला.. आप यह भी कह सकते हैं हम लोग नाराज होकर ग़ुस्से में गए, लेकिन अब फिर अपने परिवार कांग्रेस में है”

प्यारेलाल कँवर की पुत्री कोरबा जनपद पंचायत अध्यक्ष हैं। और अगर राजनैतिक विरासत पर निर्वाचित किसी चेहरे को देखना है जिसका सीधा रिश्ता प्यारेलाल कँवर से जोड़ा जाना हो तो फिर वह नाम श्रीमती हरेश कंवर ही है।

स्वर्गीय प्यारे लाल कँवर के पूत्र हरीश कँवर किसी का नाम नही लेते हैं, लेकिन समझ आता है कि मसला उस व्यक्ति से जुड़ता है जो कभी थानेदार था तो फिर विधायक बन गया। ये हैं प्यारेलाल कँवर के छोटे भाई श्याम कँवर जो कि टीआई पद से रिटायर हुए, वे जरुर एक पंचवर्षीय विधायक रहे लेकिन 2018 में वही कांग्रेस का चेहरा थे जबकि कांग्रेस तीसरे नंबर चल गई। यही वो समय भी था जबकि प्यारेलाल कँवर के पुत्र हरीश की छजका से जबर्दस्त करीबियत रही थी। पूर्व विधायक श्याम कँवर बताते है-
“चुनाव तो जीत रहे थे.. पर हराने में वो शामिल थे जो अपने थे..मैं हारा नही.. मुझे हराया गया..”

प्यारेलाल कँवर को हमेशा विधानसभा चुनाव में ननकी राम कँवर से टक्कर मिलती रही। वही ननकी राम कँवर जिनके तेवर और अंदाज से उनकी अपनी पार्टी भाजपा के क़द्दावर हलाकान रहे हैं। ननकी राम कँवर इस वक़्त फिर रामपुर से विधायक हैं।
कभी अर्श तो कभी फर्श.. राजनीति में यह होता ही रहता है। पर प्यारेलाल कँवर को वक़्त ने फिर अवसर नही दिया। वे कैंसर का शिकार हुए और उनकी मौत हो गई। वे लगातार तीन चुनाव हार चुके थे, जिसमें से एक चुनाव वह भी था जिसके बारे में क़िस्सा है कि, पहले उनकी जीत बताई गई लेकिन फिर वे हारे घोषित किए गए, यह चुनाव रिकॉर्ड में 380 मतों से श्यामलाल कँवर के हारने के रुप में दर्ज है।

बहरहाल जिस रामपुर विधानसभा के प्रतिनिधि श्यामलाल कँवर थे, वहाँ अब समस्याओं का अंबार है। स्वास्थ्य सड़क सिंचाई शिक्षा सब सवालों का ढेर लिए मुँह चिढ़ाए दिखते हैं।हालिया सालों में अपना पुराना ठौर खोजते गजराज के दल की वजह से भी यह इलाक़ा ख़बरों में आता रहा है।
और हाँ, जिस रामपुर के लाड़ले को डिप्टी सीएम तक का पद मिला, जो शख़्स एकीकृत मध्यप्रदेश में कांग्रेस के भीतर छत्तीसगढ़ के बेहद प्रभावी आदिवासी लीडर के रुप में जाना गया, उसकी एक मूर्ति तक ना उसके विधानसभा में है.. ना उसके गाँव भैंसमा में।